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भारत में ग्लोबल नेताओं का जमावड़ा, चीन के भी बदले सुर

नई दिल्ली – पहले चीन के विदेश मंत्री वांग यी का भारत दौरा (25 मार्च) और अब अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के डिप्टी एनएसए दलीप सिंह (Dalip Singh) का दो दिवसीय दौरा (30-31 मार्च) और उनके बाद रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव और फिर इजरायल के प्रधानमंत्री नफ्ताली बैनेट की 3 अप्रैल की यात्रा कई कूटनीतिक संकेत दे रही है।

रूस और यूक्रेन के बीच एक महीने से ज्यादा समय से चल रहे युद्ध के बीच इन राजनियकों का भारत पहुंचना साफ करता है कि भारत इस समय वैश्विक कूटनीति में अहम भूमिका निभा रहा है। 19 मार्च से अब तक भारत में जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिद, ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री एलेक्जेंडर शेलेनबर्ग, ऑस्ट्रेलिया के पीएम स्कॉट मॉरिसन (वर्चुअल) , ग्रीस के विदेश मंत्री निकोस डेंडिया, ओमान के विदेश मंत्री सैय्यद बद्र बिन हमद बिन हमूद अलबुसैदी, चीन के विदेश मंत्री वांग यी आ चुके हैं। जबकि मैक्सिकों के विदेश मंत्री मार्सेलो एब्रार्ड कैसाबोन, जर्मनी के राजनीतिक-सुरक्षा मामलों के पॉलिसी एडवाइजर जेंस प्लाटनर , ब्रिटेन की विदेश मंत्री एलिजाबेथ ट्रुस, अमेरिका के डिप्टी एनएसए दिलीप सिंह, रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ,इजरायल के प्रधानमंत्री नफ्ताली बैनेट भारत आने वाले हैं।

दिहार गलवान घाटी विवाद के बाद भारत और चीन के बिगड़ते रिश्ते के बीच चीन के विदेश मंत्री वांग यी का भारत दौरा और उनका बयान काफी मायने रखता है। उन्होंने भारत दौरे पर कहा कि ‘चीन और भारत एक-दूसरे के लिए खतरा नहीं है। बल्कि दोनों मिलकर एक-दूसरे के विकास के लिए काम करेंगे।’ इसी तरह रूस के साथ भारत के कच्चे तेल कारोबार का भी चीनी मीडिया ने समर्थन किया।

जाहिर है चीन के रूख में आए बदलाव की सबसे बड़ी वजह पश्चिमी देशों का उस पर बढ़ता दबाव है। क्योंकि पश्चिमी देश न केवल चीन पर रूस का समर्थन नहीं करने का दबाव बना रहे हैं। बल्कि वह रूस और चीन के अच्छे संबंधों को देखते हुए युद्ध को खत्म करने की कोशिश करना का भी चीन पर दबाव बना रहे । ऐसे में अब चीन बदले माहौल में भारत के तटस्थ रूख को देखते हुए उसे अपने पाले में लाना चाहता है। हालांकि वांग यी के दौरे पर भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने उनसे साफ कह दिया कि भारत, सीमा मुद्दे के आधार पर दोनों देशों के संबंधों को देखेगा। यानी रिश्ते सुधारने के लिए सीमा विवाद को सुलझाना बेहद जरूरी होगा। हालांकि भारत दौरे के पहले कश्मीर को लेकर ओआईसी में चीनी विदेशी मंत्री का बयान और उस पर भारत की सख्ती ने भी कई शंकाएं खड़ी कर दी थीं।

भारतीय मूल के दलीप सिंह 30-31 मार्च को भारत आ रहे हैं। उनकी रूस के खिलाफ कड़े आर्थिक प्रतिबंध लागू करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसे में भारत दौरे पर उनकी यही कोशिश होगी कि भारत पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हो। हालांकि यह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि भारत ने रूस और यूक्रेन संघर्ष को लेकर तटस्थ रूख अपना रखा है। और इस बीच उसकी रूस के साथ कच्चे तेल के खरीद को लेकर बातचीत भी हो रही है।

मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान के रिसर्च फेलो विशाल चंद्रा ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से बताया कि भारत की विदेश नीति बहुआयामी है। क्योंकि भारत एक बड़ी और उभरती हुई आर्थिक शक्ति है। ऐसे में उसकी जरूरतें डायनमिक है। इसके लिए भारत ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बना रखी है।

इसलिए भारत ने रूस और यूक्रेन युद्ध में एक तटस्थ रूख अपना रखा है। और भारत के बढ़ते महत्व को देखते हुए उसे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। ऐसे में पश्चिमी देश उसे अपने पाले में लाने की कोशिश में हैं। और जो कूटनीतिक दौरे हो रहे हैं, उसमें द्विपक्षीय संबंधों के साथ, यूक्रेन का मुद्दा भी अहम है। जहां तक भारत की बात है तो उसके रूस के साथ संबंध केवल रक्षा संबंधों तक सीमित नहीं है। दोनों देशों के बीच गहरे संबंध हैं। एशियाई और अंतरराष्ट्रीय जिओ पॉलिटिक्स के बदलते रूख को देखते हुए भारत अपने हितों को ध्यान में रख कर एक संतुलित नीति के साथ आगे बढ़ रहा है।

दूसरी बात यह है कि इस समय भारत के लिए यह बेहद जरूरी है कि चीन से दुनिया का ध्यान नहीं भटकने पाय। क्योंकि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का सारा फोकस रूस पर है। ऐसे में आने वाले राजनयिकों को चीन के प्रति सचेत करते रहना भारत के लिए बेहद जरूरी है। क्योंकि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध का फायदा चीन जरूर उठाना चाहेगा। इसलिए भारत की कूटनीति यही रहनी चाहिए कि ऑस्ट्रेलिया और जापान सहित पश्चिमी देशों का चीन की चुनौती से ध्यान नहीं भटके।

तीसरी अहम बात यह है कि रूस युद्ध के जरिए पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को नए सिरे से गढ़ना चाहता है। उसकी कोशिश यही है कि पश्चिमी देश सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को अब कमजोर नहीं समझे और उसकी हैसियत के अनुसार संबंध बनाए। ऐसे में रूस के लिए जरूरी है कि नाटो पूर्व की तरफ और अपना विस्तार नहीं करें। जिससे शक्ति का संतुलन बना रहे।

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