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सावित्र बाई फुले जयंती : देश की पहली महिला शिक्षिका की 193वीं जयंती आज,पति के साथ मिलकर महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ीं


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नई दिल्लीः देशभर में प्रतिवर्ष 3 जनवरी के दिन को सावित्रीबाई फुले जयंती के रूप में मनाया जाता है। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक गांव में हुआ था। उन्हीं को सम्मान देने के लिए प्रतिवर्ष इस दिन को सेलिब्रेट किया जाता है। सावित्रीबाई फुले को समाज सेविका, नारी मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेने वाली और देश की पहली अध्यापिका के रूप में जाना जाता है। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं के लिए भी लम्बी लड़ाई लड़ी और उनकी स्थिति में सुधार के लिए बहुत योगदान दिया।

देश की पहली महिला शिक्षिका

सावित्रीबाई फुले को समाज सेविका, कवयित्री और दार्शनिक के तौर पर पहचाना जाता है. लेकिन वो देश की पहली महिला शिक्षिका (First Female Teacher Savitribai Phule) भी थीं. महाराष्‍ट्र के सतारा जिले के छोटे से गांव में जन्‍मी सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों की शिक्षा के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और खुद शिक्षित होकर लड़कियों के लिए देश का पहला महिला विद्यालय खोला. जिस समय पर शिक्षा के लिए आवाज उठाई, उस दौर में लड़कियों की शिक्षा पर कई तरह की पाबंदियां लगी हुई थीं. ऐसे में उन्‍हें लड़कियों और महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. आज सावि‍त्रीबाई फुले की जयंती है. आज इस मौके पर आपको बताते हैं नारी मुक्ति आंदोलन की प्रणेता सावित्रीबाई फुले के बारे में-

बचपन से ही पढ़ाई की ओर रूचि

सावित्रीबाई फुले लक्ष्मी और खांडोजी नेवासे पाटिल की सबसे छोटी बेटी थीं. उनका जन्‍म एक दलित परिवार में हुआ था. उस समय दलित, पिछड़े वर्ग और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था. सावित्रीबाई फुले बचपन से ही पढ़ाई करना चाहती थीं. बताया जाता है कि ए‍क दिन वे अंग्रेजी की किताब लेकर पढ़ने की कोशिश कर रही थीं. इस दौरान उनके पिता ने देखा और किताब फेंककर उन्हें डांटा. लेकिन सावित्रीबाई को उनकी डांट से जरा भी फर्क नहीं पड़ा. उन्‍होंने तभी प्रण ले लिया कि वे शिक्षा लेकर ही रहेंगी.

विवाह के बाद की पढ़ाई

9 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले की शादी ज्योतिराव फुले से हो गई. जब उनका विवाह हुआ तब वे अशिक्षित थीं और उनके पति ज्योतिराव फुले तीसरी कक्षा में पढ़ते थे. सावित्रीबाई ने जब उनसे शिक्षा की इच्‍छा जाहिर की तो ज्‍योतिराव ने उन्‍हें इसकी इजाजत दे दी. इसके बाद उन्‍होंने पढ़ना शुरू किया. लेकिन जब वो पढ़ने गईं तो लोग उन पर पत्‍थर फेंकते थे, कूड़ा और कीचड़ फेंकते थे. लेकिन उन्‍होंने हार नहीं मानी. हर चुनौती का डटकर सामना किया.

कठिनाइयों को पार कर बनीं देश की पहली शिक्षिका

सावित्रीबाई फुले का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था। पहले के समय में दलितों को शिक्षा आदि से वंचित रखा जाता था लेकिन सावित्रीबाई फुले ने इन सब कुरीतियों से लड़कर अपनी पढ़ाई जारी रखी। उनके समाज में छुआ-छूत का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने इन सबसे हार न मानकर अपनी शिक्षा जारी रखी। इसके बाद उन्होंने अहमदनगर और पुणे में अध्यापक बनने की ट्रेनिंग पूरी की और बाद में अध्यापिका बनीं।

विरोध ने दी उन्हें शक्ति

बालिकाओं को स्कूल आने के लिए प्रेरित करने के लिए फुले दंपति ने नई पहल की. आर्थिक तौर पर कमजोर लेकिन मेधावी बालिकाओं के लिए वजीफे का इंतजाम किया. महाराष्ट्र में कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए 52 निःशुल्क हॉस्टल बनाए. स्कूलों में इंग्लिश, गणित, साइंस, सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई पर खास ध्यान दिया. नियमित पैरेंट – टीचर्स मीटिंग शुरू कीं.इन प्रयासों के नतीजे भी दिखे. इन स्कूलों की बेहतर पढ़ाई ने सरकारी स्कूलों के लिए चुनौती बढ़ाई. कमजोर और दलित वर्ग की बालिकाओं के दाखिले बढ़े. लेकिन उच्चवर्ण के पुरातनपथियों ने रास्ते में रूकावटें भी खूब डालीं. सावित्री बाई यह कहते हुए आगे बढ़ती रहीं कि आपका विरोध मुझे अपना काम जारी रखने के लिए प्रेरित करता है.

देश का पहला बालिका स्कूल स्थापित किया

सावित्रीबाई फुले जब 9 वर्ष की थीं तब उनका विवाह कर दिया गया। उनका विवाह ज्योतिबा फुले के साथ हुए.विवाह के समय उनकी आयु 13 वर्ष थी।सावित्रीबाई फुले ने न केवल खुद पढ़ाई की, बल्कि अपने जैसी तमाम लड़कियों को शिक्षा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया. शिक्षा के लिए बालिकाओं को संघर्ष न करना पड़े, ये सोचकर अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उन्होंने साल 1848 में अपने पति के सहयोग से महाराष्ट्र के पुणे में देश का पहला बालिका स्कूल स्थापित किया और उस स्‍कूल की प्रधानाचार्या बनीं. यही कारण है कि उन्‍हें देश की पहली महिला शिक्षिका का दर्जा दिया जाता है. इसके बाद उन्होंने देशभर में कई अन्य महिला विद्यालयों को खोलने में मदद की।उनके इस कार्य के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें सम्मानित किया था.

पति के साथ मिलकर महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ीं

अपने पति के साथ महाराष्ट्र में उन्होंने भारत में महिलाओं के अधिकारों को बेहतर बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्‍होंने अपने पति के साथ मिलकर कई आंदोलनों में भाग लिया, जिसमें से एक सतीप्रथा भी थी. उन्‍होंने शिक्षा के साथ-साथ नारी को उनके कई अधिकार दिलाए. नारी मुक्ति आंदोलन की प्रणेता सावित्रीबाई फुले ने समाज में फैली छुआछुत को मिटाने के लिए भी कड़ा संघर्ष किया और जो समाज में शोषित हो रही महिलाओं को शिक्षित करके अन्‍याय के खिलाफ आवाज उठाना सिखाया. 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले का प्‍लेग की बीमारी से निधन हो गया.

महिला सशक्तिकरण की सच्ची नायिका

सच्चे अर्थों में सावित्री बाई महिला सशक्तिकरण की नायिका थीं. 1852 में उन्होंने महिला अधिकारों की आवाज उठाने के लिए महिला सेवा मंडल की स्थापना की. बाल विवाह, दहेज, सती प्रथा, भ्रूण हत्या और पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कमतर आंकने की किसी भी कोशिश का पुरजोर विरोध किया. विधवा पुनर्विवाह पर जोर दिया. शारीरिक शोषण की वजह से गर्भवती होने वाली विधवाओं, बलात्कार पीड़ित लड़कियों और अनाथों के संरक्षण के लिए आश्रम स्थापित किए. सार्वजनिक कुओं से पानी लेने पर दलितों पर लगी रोक का उन्होंने विरोध किया.अपने घर के बाहर सब वर्गों के लिए कुंआ बनवाया. उन्होंने नाइयों को विधवाओं के सिर के बाल मुड़ने से मना किया और विधवाएं परिवार-समाज के बीच साथ और बराबरी के साथ बैठें, इसके लिए जनजागरण अभियान चलाए.

कई आंदोलनों में लिया भाग

सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर कई आंदोलनों में भाग लिया जिसमें से एक सती प्रथा भी था। उन्होंने विधवा होने पर महिलाओं का मुंडन किया जाता था जिसके खिलाफ उन्होंने मुखर होकर नाइयों के खिलाफ आंदोलन किया था।

प्लेग पीड़ित की रक्षा में दे दी अपनी जान

महाराष्ट्र में 1875-77 के अकाल के दौरान सावित्री बाई की अगुवाई में सत्य शोधक समाज के कार्यकर्ताओं ने व्यापक पैमाने पर भूख-प्यास से मरते लोगों की मदद की भरपूर कोशिश की. 1896 में महाराष्ट्र एक बार फिर अकाल की चपेट में था. सावित्री बाई फिर से अपने सहयोगियों के साथ पीड़ितों की मदद में जुटी रहीं. अगली विपदा प्लेग की थी. कभी न थकने और रुकने वाली सावित्री बाई और उनके दत्तक पुत्र यशवंत ने पूना के बाहरी हिस्से में प्लेग पीड़ितों के इलाज के लिए एक क्लीनिक स्थापित किया था.सावित्री बाई को पता चला कि पांडुरंग बाबाजी गायकवाड़ का पुत्र प्लेग की चपेट में आ गया है. वे फौरन ही वहां पहुंची और बीमार बच्चे को अपनी पीठ पर लेकर क्लीनिक पहुंची. दुर्भाग्य से वे भी प्लेग की चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया.3 जनवरी 1831 को जन्मी सावित्री बाई ने जीवन के हर मोड़ पर ऐसे प्रेरक कार्य किए जिनके कारण वे आज भी याद की जाती हैं. 28 नवंबर1890 को पति ज्योतिबा गोविंद राव के निधन के बाद दत्तक पुत्र यशवंत और परिवार के अन्य सदस्यों के बीच कौन दाहसंस्कार करे, इसे लेकर विवाद था. सावित्री बाई आगे बढ़ीं और चिता को अग्नि दे दी. वे सच में “क्रांति ज्योति” थीं.

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