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भारतराजनीति

Lok Sabha Result 2024 : यूपी में खिसकता जा रहा बीजेपी का जनाधार,जानें वज़ह

नई दिल्लीः लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी को करारा झटका लगा है. एनडीए यहां आधे से भी कम 36 सीटों पर सिमट कर रह गई जबकि सपा-कांग्रेस गठबंधन ने 43 लोकसभा सीटें जीती. आंकड़ों पर नजर डाले तो यूपी में एनडीए को इंडिया गठबंधन से ज्यादा वोट मिले, लेकिन बावजूद इसके बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए सात सीट से पीछे रह गया.उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने जयंत चौधरी की रालोद, ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा, अनुप्रिया पटेल की अपना दल सोनेलाल और निषाद पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. एनडीए का गठबंधन काफी मजबूत माना जा रहा है. जिसके साथ तमाम जातीय समीकरण को जोड़ने की कोशिश की गई थी. जबकि दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और एक सीट सपा ने टीएमसी को दी थी. इन तीनों ने मिलकर चुनाव लड़ा.

मतदाताओं की बढ़ी संख्या

भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में 4.29 करोड़ वोट मिले थे जो कि तीन वर्ष बाद विधानसभा चुनाव में घटकर 3.81 करोड़ रह गए। मौजूदा लोकसभा चुनाव में तो और खिसककर 3.62 करोड़ पहुंच गए हैं। मतलब यह है कि पिछले पांच वर्ष में लगभग 65.91 लाख मतदाता भाजपा से दूर चला गया है। पार्टी की लोकसभा में सीटें भी 62 से 33 हो गई हैं। यह स्थिति तब है जब पांच वर्ष के दौरान मतदाताओं की संख्या भी बढ़ी।

सपा का जनाधार कायम

डबल इंजन की सरकार ने प्रदेश में विकास कराने में पिछले सारे रिकार्ड तोड़े हैं, लेकिन इस चुनाव में विकास पर बिरादरी वाद-जातिवाद हावी रहा। राज्य के मुख्य विपक्षी दल सपा की बात करें तो उसके सांसद तो पांच से 37 हो गए हैं, लेकिन पार्टी को पिछले विस चुनाव में मिले 2.95 करोड़ मतों में कोई इजाफा नहीं हुआ। दो वर्ष बाद भी सपा के वोट लगभग यथावत ही रहे हैं।

बसपा राजनीतिक यात्रा के सबसे खराब दौर से गुजरती दिख रही है

2019 में बसपा-रालोद से गठबंधन कर 37 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटें जीतने वाली सपा को 1.55 करोड़ वोट मिले थे, लेकिन तीन वर्ष बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में उसके 1.40 करोड़ वोट बढ़ गए। बसपा तो अपनी चार दशक की राजनीतिक यात्रा के सबसे खराब दौर से गुजरती दिख रही है। दो वर्ष पहले के विधानसभा चुनाव से ही देखा जाए तो बसपा का वोट 36.39 लाख घट गया है। अगर पिछले लोकसभा चुनाव से देखें तो पार्टी के रिकार्ड 84.26 लाख वोट खिसक गए हैं।

सबसे ज्यादा वोट बीजेपी के खाते में आए

पार्टी के लिहाज से बात की जाए तो सबसे ज्यादा वोट बीजेपी के खाते में आए. दूसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी रही. तीसरे नंबर कांग्रेस को वोट मिले और चौथे नंबर राष्ट्रीय लोकदल को वोट मिले. जबकि इनके बाद अपना दल सोनेलाल, टीएमसी और सुभासपा जैसी पार्टियां रही. एनडीए ने इंडिया गठबंधन के मुकाबले 47 हजार ज्यादा वोट पाए लेकिन जब सीटों की बात करें तो वो इंडिया से बहुत पीछे रह गई. जहां कम वोट पाकर भी इंडिया ने 43 सीटों पर कब्जा किया तो नहीं एनडीए 36 सीटों पर ही रह गया.

लगातार घट रहा बसपा का वोट

गौरतलब है कि वर्ष 2019 में बसपा का सपा-रालोद से गठबंधन था और पार्टी 38 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और 10 सांसद जीते थे। जिस तरह से बसपा का वोट घटता जा रहा है उससे उसका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा तो खतरे में पड़ता दिख ही रहा है। चूंकि राज्य में कांग्रेस के पतन के साथ ही बसपा मजबूत होती गई इसलिए अब कांग्रेस के बढ़ने से बसपा के अस्तित्व पर गंभीर संकट माना जा रहा है।

अपना दल की बुरी स्थिति

माना जा रहा है कि पिछले विस चुनाव से भाजपा और बसपा का खिसका जनाधार इस लोस चुनाव में कांग्रेस के साथ रहा। गौर करने की बात यह है कि एनडीए में शामिल अपना दल (एस) भाजपा का सहयोग करना तो दूर अपनी भी एक सीट नहीं बचा सकी। पार्टी का पहले से 2.32 लाख से अधिक वोट घट गया। अब एनडीए में शामिल रालोद से भी भाजपा को कोई खास फायदा होता नहीं दिखा। पिछले लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के साथ और फिर विधानसभा में सपा के साथ रही रालोद के वोट भी इस चुनाव में घट गए हैं।

अखिलेश की कौनसी रणनीति रही कारगर?

अखिलेश यादव शुरू से ही रोजगार, युवाओं पर फोकस रखा। साथ ही उन्होंने बीजेपी से पार पाने के लिए यही सोच रखा था कि कुछ नया ही करना होगा। यही कारण है कि वे समय के साथ नई सोच से एक नया नै​रेटिव लेकर आए और यह था ‘पीडीए’ यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग, जिन पर सपा ने फोकस किया। इससे पहले सपा एमवाई यानी मुस्लिम और यादव फैक्टर पर लंबे समय राजनीति कर रही थी। लेकिन नारा बदला तो परिणाम भी बदले और 2019 के लोकसभा चुनाव में मात्र पांच सीटें जीतने वाली सपा 2024 के चुनाव में 37 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई। वहीं 2019 में 62 सीटें जीतने वाली बीजेपी की 2024 के चुनाव में करीब आधी सीटें कम हो गईं।

पीडीए कैसे रहा असरदार?

अखिलेश की पार्टी सपा ने इस बार 80 सीटों में से 62 सीटों पर चुनाव लड़ा और इसमें से केवल पांच यादव प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतारे, ये सभी उम्मीदवार मुलायम सिंह परिवार के सदस्य थे। सपा ने पीडीए वर्ग को सीटें देने में तरजीह दी। अखिलेश ने इस बार मुस्लिम और यादव वोटरों के साथ ही वोट शेयर बढ़ाने के लिए पीडीए वर्ग के प्रत्याशियों को भी प्रमुखता से खड़ा किया। वहीं उच्च वर्ग से सनातन पांडे के रूप में ब्राह्मण, रुचि वीरा वैश्य वर्ग से तो वहीं राजीव राय भूमिहर जाति से हैं। वहीं, आनंद भदौरिया और बीरेंद्र सिंह ठाकुर समुदाय से हैं। सपा ने मेरठ और फैजबाद यानी अयोध्या जैसी सामान्य सीटों पर एससी प्रत्याशियों को मैदान में उतारा।

टिकट बांटने की रणनीति

लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों को चुनते समय समाजवादी पार्टी ने बहुत अच्छे तरीके से टिकट बांटे. सपा ने गैर-यादव ओबीसी उम्मीदवारों को खूब टिकट दिए. सिर्फ पांच यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया गया, जो अखिलेश यादव परिवार से ही थे. 27 गैर-यादव ओबीसी; चार ब्राह्मण, दो ठाकुर, दो वैश्य और एक खत्री समेत 11 उच्च जाति; 4 मुस्लिम प्रत्याशियों के अलावा 15 दलित उम्मीदवारों को टिकट दिया गया.

चुनाव प्रचार का बदला स्टाइल

टिकट बांटने की कला ही एकमात्र रणनीति नहीं है, जिसने सपा को जीत दिलाई है, बल्कि जिस तरह से चुनाव प्रचार किया गया. उसने भी कहीं न कहीं जीत सुनिश्चित की है. बीजेपी ने जहां बड़ी और भव्य रैलियों पर फोकस किया, वहीं सपा-कांग्रेस ने मिलकर भव्यता के बजाय लोगों और स्थानीय समुदायों तक पहुंचने पर जोर दिया.इसका उदाहरण ये है कि कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने रायबरेली और अमेठी में जमकर प्रचार किया, लेकिन उन्होंने कोई बड़ी रैली नहीं की. इसके बजाय वह रोजाना 20 नुक्कड़ सभा करती हुई नजर आईं, जो सुबह से लेकर देर शाम तक चलती थी. सपा के प्रत्याशी भी बड़ी रैलियों के बजाय लोगों से मिलने को ज्यादा तवज्जो दे रहे थे.

संविधान-ओबीसी आरक्षण पर फंस गई भाजपा

राजनीतिक जानकार उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के लिए तीन कारणों को जिम्मेदार बता रहे हैं। सबसे पहला यह कि विपक्ष की ओर से जनता से कहा गया कि अगर भाजपा फिर से सरकार में आई, तो वह संविधान में बदलाव कर देगी। इसके साथ ही ओबीसी और एससी-एसटी आरक्षण को खत्म कर देगी। इसको भाजपा बेअसर करने में नाकाम रही है। अपनी रैलियों और जनसभाओं में नरेंद्र मोदी और अमित शाह बार-बार कहते रहे कि यह विपक्ष की ओर से फैलाया जा रहा झूठ है। भाजपा ऐसा कुछ भी नहीं करने वाली है, लेकिन उनके प्रयास असफल रहे हैं।

कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करना

दूसरा, पार्टी कार्यकर्ताओं से नकारात्मक प्रतिक्रिया के बावजूद भाजपा अपने सांसदों के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना का अनुमान नहीं लगा सकी। इसने शुरू में अपने मौजूदा सांसदों में से 30% को टिकट देने से इनकार कर दिया था, लेकिन अंत में केवल 14 मौजूदा सांसदों को ही टिकट दिया। किसानों और समाज के अन्य वर्गों के विरोध ने राज्य के कई इलाकों में पार्टी के खिलाफ गुस्से को और बढ़ा दिया।

हिंदू मतदाता जातियों में बंट गए

भाजपा की हार में तीसरा कारण अल्पसंख्यक आक्रामकता को कम करने का उसका असफल प्रयास और विपक्ष, मुख्य रूप से सपा-कांग्रेस गठबंधन के पीछे उसका एकजुट होना, जिसने सफलतापूर्वक भाजपा की सीटों को कम कर दिया। वहीं, राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राम मंदिर का उद्घाटन, काशी विश्वनाथ धाम के जीर्णोद्धार और कृष्ण जन्मभूमि शाही ईदगाह का मुद्धा खूब उठाया। भाजपा ने नारा भी दिया कि काशी, अयोध्या का प्रण पूरा और अब मथुरा की बारी है। इसके बावजूद भाजपा हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में असफल रही। हिंदू मतदाता जातियों में बंट गए। वहीं, एनडीए के जो सहयोगी दल रहे, वो उत्तर प्रदेश में कुछ खास नहीं कर सके, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में। अपना दल एस और सुभासपा अपनी सीटें नहीं बचा पाए। पूर्वांचल की जनता ओबीसी बनाम ऊंची जाति वाले बयानों से तंग आ चुकी थी।

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