Research: सारी दुनिया में मर्दों को चाहिए खाना बनाने और सफाई करने वाली बीवी
मुंबई – दुनिया में पहले की तुलना में वर्तमान में महिलाओ को पुरुषो के समान सभी क्षेत्रो में हक़ मिलते है। इस बात में कोई संदेह नहीं है। लेकिन अभी भी रसोई को औरतों की जगह मानना अकेले हिंदुस्तानियों की बपौती नहीं, बल्कि शायद इस अकेले मुद्दे पर दुनिया एकमत है।
सदियों पहले महान ग्रीक नाटककार एस्केलस ने कहा था- दुनिया में शांति चाहिए तो औरतों को रसोई में छोड़ दो। हुआ भी यही। मसालों-छुरियों से सजा साम्राज्य औरत को दे दिया गया। यहां आटा है, इधर सब्जियां, उधर गोश्त। ज्यादा कुछ नहीं करना। सुबह घर छोड़ते मर्द को बढ़िया नाश्ता करा देना। रात लौटे, तो उसकी पसंद का ताजा खाना परोस दो। फेसबुक पर महिलाओं का एक इंटरनेशनल क्लोज्ड ग्रुप है। उस ग्रुप में यूरोप, एशिया, उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका से लेकर अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया तक के 200 से ज्यादा देशों, शहरों और कस्बों की महिलाएं है। चंद रोज पहले प्रेटोरिया, दक्षिण अफ्रीका से 19 साल की एक लड़की ने ग्रुप में लिखा कि मैं ये सुन-सुनकर थक चुकी हूं कि अगर तुम खाना बनाना और सफाई करना नहीं सीखोगी तो कोई लड़का तुमसे शादी नहीं करेगा। सबसे पहले तो किसने कहा कि मुझे शादी करनी ही है और दूसरे करनी भी होगी तो ऐसे लड़के से क्यों करूंगी, जो खाना बनाने और सफाई करने वाली नौकरानी चाहिए। मेरे भी तो कुछ स्टैंडर्ड है।
प्रेटोरिया की ये 19 साल की लड़की कोई पांच दशक पहले पैदा नहीं हुई है, जो हम ये कहकर दिल को बहला लें कि पहले ऐसा होता था, अब तो नहीं होता है। लेकिन सबसे मजेदार बात थी उस लड़की की पोस्ट पर दुनिया के तमाम देशों और शहरों से आए हुए कमेंट। अर्जेंटीना के एक शहर मेंडोजा से एक लड़की लिख रही थी कि उसकी मां ने भी बचपन से उसे यही सिखाया, जो उसने कभी न सुना, न माना। फिर उसका एक बॉयफ्रेंड बना, जो ब्यूनस आयर्स में रहता था। लड़की जब भी मेंडोजा से राजधानी जाती, लड़का उम्मीद करता कि वो लौटने से पहले उसका घर चमकाकर, उसके चार बाल्टी कपड़े धोकर और उसके लिए हफ्ते भर का खाना बनाकर जाएगी। खाना पकाने और मर्द को रिझाने की कला हर औरत में वैसी ही हो, जैसे इंसानों में इंसानियत। वो औरत ही क्या, जिसे देसी पकवान के साथ सत्तर किस्म के पुलाव और अंग्रेजी-मुगलई डिशें न आती हों।
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (ILO) की रिपोर्ट के मुताबिक औरतें, खासकर एशियाई कामकाजी औरतें पुरुषों से 4 गुना ज्यादा ‘अनपेड’ काम करती हैं। वे दफ्तर जाने से पहले बच्चों की देखभाल, खाना पकाना, घर साफ करना जैसे काम निपटाती हैं और लौटने के बाद दोबारा जुट जाती हैं। इन जरूरी, लेकिन बेपैसे के कामों में उलझकर उनके पास पढ़ने या नया सीखने का वक्त नहीं बचता, जबकि उनका साथी दफ्तर से लौटकर खाली वक्त में पढ़ता या कुछ सीखता है। नतीजा। ज्यादा या बराबर की प्रतिभा के बाद भी पत्नी, पति से पीछे छूटती जाती है। वर्क प्लेस जेंडर इक्वेलिटी एजेंसी (WEGA) के आंकड़े आंखों में सुई चुभोकर ये सच्चाई दिखाते हैं। इसके मुताबिक, वर्किंग वीक में भी दफ्तर के अलावा औरतों का 64.4% समय पकाने और बच्चों और सफाई में जाता है, जबकि मर्द बड़ी मुश्किल से 36.1% वक्त दे पाते है।
भयंकर इम्युनिटी वाले, दुनियाभर के खाए-पचाए मर्द भी घर के खाने को लेकर एकदम राजदुलारे हो जाते है। खाएंगे तो मां या बीवी के हाथ का ही पका हुआ। बीवियां भी लजाती हुई रसोई में जुते रहने की हसीन दलील देती है कि इनको मेरे अलावा किसी के हाथ का खाना पसंद नहीं। या फिर कामवाली के हाथ की सख्त रोटियां देख इनका तो हाजमा खराब हो जाता है। औरत अगर सख्ती से पालतू न बने तो उसे प्यार की जंजीर पहना दो। पालतूपन का ये पट्टा औरत चाहकर भी नहीं उतार पाएगी। एक फायदा और भी है। मामूली से मामूली बावर्ची भी तनख्वाह मांगता है, जबकि औरत रोटी-कपड़े पर मान जाती है। कई बार तो पकाने के बर्तन-भाड़े भी साथ लाती है। ऐसे में बावर्ची क्यों रखना, शादी कर औरत ही क्यों न ले आएं! तभी तो देहरी फर्लांगते ही दुल्हन की पहली रस्म मीठा बनाने की होती है।
ये कहां की बराबरी है दोस्त! रसोई में रहो। मनचाहा रहो। बारहों किस्म की दावतें पकाओ। बीसियों को खिलाओ। पति अपने दोस्तों को दावत पर बुलाए। आने दो। मेहमाननवाजी करो, लेकिन पक्का कर लो कि देग तुम संभालोगी तो करछी पति चलाए। अगर नहीं तो इनकार कर दो। रिश्ता जुड़ने की शर्त अगर रसोई में हुनरमंद होना हो, तो रुक जाओ। खाना पकाना पसंद है तो पकाओ। नापसंद हो तो खुलकर कह दो। रसोई खुशी है, कोई कब्र नहीं, जिसमें तुम्हारा सामना जरूरी ही हो। उसकी जगह अकेली रसोई नहीं, बल्कि वो सारी दुनिया है, जहां कोई भी आ-जा सके। बस थोड़ी जगह रसोई में तुम भी बना लो।