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देश की पहली महिला शिक्षक की पुण्यतिथि,सावित्री बाई फुले की पुण्यतिथि पर उन्हें करे नमन


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नई दिल्ली – घर परिवार को संभालने और रसोई में खाना बनाने तक सीमित महिलाएं आज पढ़ लिखकर नौकरी कर रही हैं। राजनीति से लेकर व्यापार और रक्षा विभाग जैसे क्षेत्रों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं। महिलाओं को शिक्षा की ओर अग्रसर करने और उनके लिए शिक्षा का मार्ग खोलने का श्रेय एक महिला को ही जाता है। इनके नाम देश की पहली महिला शिक्षिका होने का गौरव है।

दलित परिवार में जन्‍मी सावित्रीबाई फुले का

3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में जन्‍मी सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थी। उनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की प्रथम नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। सावित्रीबाई फुले आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के संग मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी। 10 मार्च 1897 को प्लेग महामारी से पीड़ित होकर उन्होंने अंतिम सांस ली।

सावित्रीबाई फुले की जीवन परिचय

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र राज्य के सतना जिले के नायगांव में हुआ था। उस दौर में दलितों के साथ भेदभाव होता था। दलितों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। खासकर महिलाओं को पढ़ाई की बिल्कुल अनुमति नहीं थी। लेकिन सावित्रीबाई फुले न केवल खुद शिक्षित हुईं, बल्कि अपनी जैसी कई महिलाओं के लिए शिक्षा का मार्ग खोला।एक बार जब सावित्रीबाई छोटी थीं, जो उन्हें कहीं से एक अंग्रेजी किताब मिली। जब पिता ने सावित्रीबाई के हाथ में किताब देखी तो उसे छीन कर फेंक दिया। उनके पिता ने समझाया कि शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार सिर्फ उच्च जाति के पुरुषों को ही है। दलितों और खासकर स्त्रियों को पढ़ाई की इजाजत नहीं है।

समाज में महिलाओं को हक दिलाना था उनका लक्ष्य

देश में विधवाओं की दुर्दशा भी सावित्रीबाई को बहुत दुख पहुंचाती थी। इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला। वर्षों के निरंतर सुधार के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। उस समय आम गांवों में कुंए पर पानी लेने के लिए दलितों और नीच जाति के लोगों का जाना वर्जित था। यह बात उन्हें और उनके पति को बहुत परेशान करती थी। इसलिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा ताकि वह लोग भी आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कदम का उस समय खूब विरोध भी हुआ।

समाज में महिलाओं को हक दिलाना था उनका लक्ष्य

देश में विधवाओं की दुर्दशा भी सावित्रीबाई को बहुत दुख पहुंचाती थी। इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला। वर्षों के निरंतर सुधार के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। उस समय आम गांवों में कुंए पर पानी लेने के लिए दलितों और नीच जाति के लोगों का जाना वर्जित था। यह बात उन्हें और उनके पति को बहुत परेशान करती थी। इसलिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा ताकि वह लोग भी आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कदम का उस समय खूब विरोध भी हुआ।

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