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चीन ने तालिबान से मिलाया हाथ ,जानें इसके पीछे की चाल


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नई दिल्लीः चीन ने अपना राजदूत अफगानिस्तान भेजा है. तालिबान ने उनका जोरदार स्वागत किया. तालिबान सरकार में विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी ने कहा कि झाओ शेंग का नॉमिनेशन अफगानिस्तान के लिए बड़ी बात है और यह अपने आम में एक संदेश है. ऐसा पहली बार है जब तालिबानी टेकओवर के बाद किसी देश के राजदूत का अफगानिस्तान में इस स्तर पर स्वागत हुआ है.

चीन ने अफगानिस्‍तान में तालिबानी सरकार बनने के बाद पहली बार अपने राजदूत को नियुक्‍त किया है। चीन दुनिया का ऐसा पहला देश है जिसने अफगानिस्‍तान में अपना राजदूत नियुक्‍त किया है। चीन के राजदूत झाओ शेंग का काबुल में राष्‍ट्रपति महल में आयोजित एक भव्‍य कार्यक्रम में तालिबान ने जोरदार स्‍वागत किया। चीन उन कुछ देशों में शामिल है जिन्‍होंने तालिबान राज आने के बाद भी अफगानिस्‍तान में अपनी राजनयिक उपस्थिति को बरकरार रखा है। पाकिस्‍तानी व‍िश्‍लेषकों का मानना है कि चीन के इस कदम के पाकिस्‍तान के लिए बहुत मायने हैं। यह एक तरह से चीन का पाकिस्‍तान से किनारा करना भी है।

चीनी राजदूत झाओ की कार बुधवार को पुलिस के काफिले के साथ राष्ट्रपति भवन के पेड़ों से घिरे रास्ते से गुजरती दिखाई पड़ी. वर्दीधारी सैनिकों ने उनका स्वागत किया और प्रशासन के प्रमुख मोहम्मद हसन अखुंद और विदेश मंत्री मुत्ताकी सहित टॉप रैंकिंग तालिबानी अधिकारियों से मुलाकात की. बुधवार को अफगानिस्तान स्थित चीनी दूतावास ने एक बयान जारी कर कहा कि यह पॉलिटिकल फ्रेमवर्क बनाने, उदारवादी नीतियां अपनाने, “आतंकवाद” से लड़ने और अन्य देशों से दोस्ती कायम करने दिश में आगे बढ़ने की कोशिश है.

विश्‍व महाशक्ति अमेरिका को पछाड़ने के लिए चीन (China) कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहा. रूस के राष्‍ट्रपति व्‍लादिमीर पुतिन के साथ दोस्‍ती बढ़ाकर पहले उसने अमेरिका और यूरोपीय देशों को परोक्ष चुनौती दी और अब तालिबान (Taliban) के शासन वाले अफगानिस्‍तान (Afghanistan) में अपना पूर्णकालिक राजदूत नियुक्‍त करके ‘अलग राह’ पर चलने के साफ संकेत दे दिए हैं. अफगानिस्‍तान पर तालिबान के कब्‍जे के बाद चीन, दुनिया का ऐसा पहला देश है जिसने काबुल में अपना राजदूत नियुक्‍त किया है. तालिबान प्रशासन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि नए दूत झाओ जिंग अगस्त 2021 के बाद से पद संभालने वाले किसी भी देश के पहले राजदूत हैं. बता दें, आतंकवाद को प्रश्रय देने और महिला शिक्षा व मानवाधिकारों के दमन के लिए बदनाम तालिबान को अब तक किसी भी विदेशी सरकार ने आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है. तालिबान ने 15 अगस्त 2021 को अफगानिस्तान पर फिर कब्जा जमाया था. इससे पहले वर्ष 1996 से लेकर 2001 तक भी वह, अफगानिस्‍तान पर शासन कर चुका है.

तालिबान मान रहा है कि चीनी राजदूत का यह दौरा अन्य देशों को संदेश देगा और वे अफगानिस्तान के साथ संबंधों को फिर से कायम करने के लिए आगे आएंगे. चीनी विदेश मंत्री ने कहा कि राजदूत का यह सामान्य रोटेशन है, और अगर सबकुछ ठीक रहता है तो आगे भी बातचीत बढ़ेगी और चीन-अफगानिस्तान के बीच सहयोग बढ़ेगा.

तालिबान ने अफगानिस्‍तान में शरिया कानून लागू करते हुए महिलाओं की शिक्षा और नौकरी पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे. यही नहीं, अफगानिस्‍तान में ब्‍यूटी पार्लर बंद कर दिए गए हैं और महिलाओं की पार्क और जिम में एंट्री भी बंद कर दी गई है. टीवी-सिनेमा देखने और 10 साल से अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर यहां पाबंदी है. तालिबान जब दूसरी बार अफगानिस्‍तान की सत्‍ता पर काबिज हुआ था तो उसने खुद को बदलने और एक हद तक उदारवादी रुख अख्तियार करने का वादा किया था लेकिन ऐसा कुछ भी उसके व्‍यवहार में अब तक देखने में नहीं आया है.

अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार को किसी भी देश ने स्वीकार नहीं किया है और मान्यता नहीं दी है. चीन ऐसा पहला देश है जो इस तरफ कदम बढ़ा रहा है. हालांकि, राजदूत भेजने को लेकर चीन ने अभी साफ नहीं किया है कि वे तालिबानी शासन को मान्यता देंगे या नहीं. कब्जे के बाद तालिबान के कई नेताओं पर नए सिरे से प्रतिबंध लागू किए गए थे, जिनमें कई पर पहले से ही प्रतिबंध लगे थे.

कुछ विश्‍लेषकों का यह भी मानना है कि चीन ने सुरक्षा चिंता के चलते तालिबान के साथ दोस्‍ती का हाथ बढ़ाया है. उनका कहना है कि बीजिंग को अंदेशा है कि अफगानिस्तान, उइगर चरमपंथी समूह के लिए एक संभावित आश्रय स्थल बन सकता है. यह समूह, चीन में उइगर मुसलमानों के व्यापक दमन के खिलाफ जवाबी कार्रवाई कर सकता है और चीन में आतंकी गतिविधियां बढ़ सकती हैं. चीन पर उइगर मुसलमानों (Uighur Muslim) के दमन और अमानवीय व्‍यवहार करने के आरोप लगातार लगे हैं.

अशरफ गनी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के बाद अफगानिस्तान की हालत गंभीर बनी हुई है. पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिए. विदेशी बैंकों में जमा फंडिंग भी फ्रीज कर दी गई. इसके बाद से ही तालिबान अफगानिस्तान को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहा है. विदेशी मदद नहीं मिल रही है और कंपनियां भी वहां जाने से कतराती हैं. अब अगर चीन अफगानिस्तान में अपनी गतिविधियां बढ़ाता है तो यह तालिबानी शासन के लिए सोने पर सुहागा जैसा होगा.

ऐसे में सवाल उठता है कि चीन किस उद्देश्‍य से तालिबान के साथ खड़ा हुआ है. काबुल में राजदूत की नियुक्ति के मुद्दे पर चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा है, ‘यह अफगानिस्तान में चीन के राजदूत का सामान्य रोटेशन है और इसका उद्देश्य चीन और अफगानिस्तान के बीच बातचीत व सहयोग को आगे बढ़ाना जारी रखना है.’ राजनीतिक विश्‍लेषक इस कदम के अपने मायने निकाल रहे. उनका मानना है कि चीन के इसके पीछे फिलहाल खालिस आर्थिक और सुरक्षा हित हैं. चीन ने अफगानिस्तान में लाखों डॉलर का निवेश किया है और वह इस मुल्‍क में अपना प्रभाव बढ़ाते हुए विकास कार्य में मदद करना चाहता है. इसके पीछे चीन की मंशा अफगानिस्‍तान में भारत का प्रभाव कम करने और खुद को काबुल का ‘हमदर्द’ बताने की भी है.

तालिबान की ओर से किए गए इस अनुरोध पर भारत की ओर से अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.अंतरराष्‍ट्रीय मामलों के कुछ जानकारों का मानना है कि अगर आने वाले समय में अफगानिस्तान में अपने अधूरे प्रोजेक्ट्स को पूरा करने के लिए भारत सरकार सहमत हो जाती है या वहां नए निवेश की इच्‍छा जताती है तो इससे अंतरराष्‍ट्रीय जगत में नई दिल्‍ली की काबुल से नजदीकी बढ़ने और उसके तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता देने का संदेश जाएगा जो भारत कभी नहीं चाहेगा. दूसरी ओर, अफगानिस्‍तान को मानवीय आधार पर मदद देकर भारत यह संदेश विश्‍व बिरादरी तक पहुंचा रहा कि वह इस मुल्‍क की गरीब जनता के साथ है लेकिन तालिबान के शासन पर उसका रुख इससे अलग है.

पाकिस्‍तानी राजनयिकों का कहना है कि अब चीन खुद ही तालिबान के साथ अपने रिश्‍ते को मजबूत करना चाहता है। चीन का इरादा काबुल तक सीपीईसी को ले जाने का है। चीन अफगानिस्‍तान के प्राकृतिक संसाधनों पर नजरे गड़ाए हुए है और वह तेल की खोज कर रहा है। चीन की नजर अफगानिस्‍तान के लीथियम भंडार पर है ज‍िसे सफेद सोना भी कहा जाता है। अफगानिस्‍तान में अरबों डॉलर के खनिज भंडार मौजूद हैं। चीन अब पाकिस्‍तान को छोड़कर मध्‍य एशिया के देशों के रास्‍ते अफगानिस्‍तान से व्‍यापार करने की सोच रहा है।

अफगानिस्‍तान में सत्‍ता पर काबिज होने के अपने दूसरे कार्यकाल में तालिबान का भारत के प्रति रुख कुछ बदला हुआ नजर आया है. तालिबान चाहता है कि उसके मुल्‍क में निवेश करके भारत नए प्रोजेक्‍ट शुरू करे.भारत ने इस बारे में अब तक अपना रुख स्‍पष्‍ट नहीं किया है, हालांकि वह मानवीय पहलू को ध्‍यान में रखते हुए वहां सहायता/रसद पहुंचाना जारी रखे हुए है.भारत ने अफगानिस्तान में गेहूं के वितरण के लिए संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रमके साथ साझेदारी की है. इसके तहत भारत ने अफगानिस्तान में यूएनडब्ल्यूएफपी केंद्रों को कुल 47,500 मीट्रिक टन गेहूं उपलब्‍ध कराया है.नए निवेश के अलावा तालिबान यह भी चाहता है कि भारत जो प्रोजेक्ट्स पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की सरकार के दौरान शुरू करने के बाद बीच में ही छोड़ दिए थे, उन्हें दोबारा शुरू किया जाए.उसने इसके लिए अफगानिस्‍तान में भारतीयों को सुरक्षा देने का वादा भी किया है.

चीन ने यह कदम ऐसे समय पर उठाया है जब टीटीपी ने पाकिस्‍तान पर भीषण हमले शुरू किए हैं। चित्राल के कई गांवों पर तो टीटीपी ने कब्‍जा कर लिया था। पाकिस्‍तानी सेना और टीटीपी के बीच लड़ाई अभी भी जारी है। टीटीपी के आतंकी तालिबान के समर्थन से पाकिस्‍तानी इलाकों में घुसपैठ कर रहे हैं। पाकिस्‍तान लगातार ताल‍िबानी सरकार पर आरोप लगा रहा है कि वह टीटीपी को शरण दे रहा है। वहीं तालिबान ने पाकिस्‍तान के सभी दावों को खारिज कर दिया है। अब तालिबान पर जब दबाव डालने के लिए पाकिस्‍तान को चीन की जरूरत थी, तब ड्रैगन ने उसका साथ छोड़ दिया है और अफगानिस्‍तान में राजदूत तैनात कर दिया। इससे पहले पाकिस्‍तान के केयरटेकर प्रधानमंत्री ने तालिबान पर निशाना साधते हुए कहा था कि तालिबानी सरकार कानूनी नहीं है।

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