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सुप्रीम कोर्ट ने पीरियड से संबंधित से छुट्टी पर सुनवाई से इनकार किया


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नई दिल्ली – सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई से इनकार कर दिया है। जनहित याचिका में 1961 मातृत्व लाभ अधिनियम का जिक्र कर छात्राओं और कामकाजी महिलाओं को उनके मासिक धर्म के दौरान उनके संबंधित कार्यस्थलों पर अवकाश देने के लिए अर्जी लगाई गई थी। पीआईएल में सुप्रीम कोर्ट से अपील की गई थी कि वो सभी राज्य सरकारों को इस संबंध में निर्देश जारी करे।इस मामले की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह सरकारी नीति से संबंधित मामला है।

शीर्ष अदालत में एडवोकेट शैलेंद्र मणी त्रिपाठी ने यह याचिका दायर की है। इसमें कहा गया है कि महिला स्टूडेंट्स और कामकाजी महिलाओं को माहवारी के वक्त छुट्टी दी जानी चाहिए। याचिकाकर्ता ने यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन की एक स्टडी का हवाला दिया है। इसमें कहा गया है कि माहवारी के वक्त महिलाओं को काफी दर्द रहता है। स्टडी में यह भी कहा गया है कि दर्द की स्थिति यह होती है कि वह किसी आदमी के हार्ट अटैक में होने वाले दर्द के बराबर होता है। इस कारण कामकाजी महिलाओं के काम की क्षमता को प्रभावित करता है।

तीन जजों की बेंच ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि वो उनके विचार और तर्क से सहमत हैं। सवाल यह है कि अगर आप नियोक्ता पर छुट्टी के लिए दबाव बनाएंगे तो महिलाओं को नौकरी देने से नियोक्ता बचेंगे। इसके अलावा यह पॉलिसी से जुड़ा मामला है, लिहाजा अदालत दखल नहीं देगी।बता दें कि इस संबंध में शैलेंद्र मणि त्रिपाठी ने याचिका दायर की थी। उनका कहना है कि एक्ट में इस बात का प्रावधान है कि प्रेग्नेंसी, मिसकैरेज, नसबंदी और इससे जुड़े केस में नियोक्ता पेड लीव दे सकता है।

जनहित याचिका में यह भी कहा गया है कि कई राज्य भी महावारी छुट्टी देते हैं। याचिकाकर्ता ने कहा कि महिलाओं को इससे वंचित करना उनके समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। महिलाएं भारत की नागरिक हैं और उन्हें समान अधिकार मिले हुए हैं। याचिकाकर्ता ने कहा कि 2018 में शशि थरूर ने वूमेन्स सेक्सुअल रिप्रोडक्टिव एंड मेंस्ट्रूअल राइट्स बिल पेश किया था। इसमें कहा गया था कि महिलाओं को पब्लिक अथॉरिटी फ्री में सिनेटरी पैड आदि उपलब्ध कराएं। याचिकाकर्ता ने कहा कि पीरियड के समय छुट्टी के लिए कोई कानून नहीं है।

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