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‘शोटाइम’ वेब सीरीज रिव्‍यू : वेब सीरीज ‘शोटाइम’ बहुत कुछ बताती है


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मुंबई – बॉलीवुड की दुनिया जितनी ग्लैमरस और चकाचौंध से भरी दिखती है, उसके पीछे उतना ही अंधेरा भी है। यह बात कई बार कई तरह से लोगों ने कही और सुनी है। निर्माता-निर्देशक मधुर भंडारकर अपनी ‘पेज 3’, ‘फैशन’ और ‘हीरोइन’ जैसी फिल्मों में ग्‍लैमर इंडस्ट्री के इस स्याह सच को दिखा चुके हैं। वहीं, अब निर्माता करण जौहर OTT पर वेब सीरीज ‘शोटाइम’ के रूप में 8 एपिसोड्स में इसी तल्ख सचाई को लेकर आए हैं।

गॉसिप वीडियो मैगजीन सरीखी सीरीज

वेब सीरीज ‘शोटाइम’ का निर्माण किसी गॉसिप फिल्म मैगजीन के वीडियो संस्करण की तरह किया गया है। ‘नेपोटिज्म के मुखौटे के पीछे आखिर में हर आउटसाइडर इनसाइडर बनना चाहता है’ ये इस सीरीज की पंचलाइन है। सीरीज की लिखावट चुस्त है। सुमित, मिथुन और लारा ने बीते कुछ साल में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की घटनाओं और इसके हीरो-हीरोइनों का एक ‘एमलगमेशन’ (सम्मिश्रण) तैयार किया है। हर किरदार का ग्राफ अपने आप में कई असली कलाकारों के किस्से समेटे हुए है। और, यही इस सीरीज को देखने की दिलचस्पी बनाए रखता है। जहान हांडा और श्रीकांत शर्मा को इसके निर्माताओं ने जो बातें संक्षेप में फिल्म इंडस्ट्री की अंदरूनी हलचलों के तौर पर समझाई हैं, उन्हें इन्होंने अपने संवादों में दुरुस्त तरीके से पिरोने की अच्छी कोशिशें भी की है। अपनी कहानी, पटकथा और संवादों से मजबूती पाती वेब सीरीज ‘शोटाइम’ बहुत कुछ बताती है, लेकिन उससे ज्यादा छिपाती भी है। ‘सम्राट पृथ्वीराज’ वाला अक्षय कुमार का गेटअप ओढ़े अभिनेता राजीव खंडेलवाल के किरदार की रचना दिलचस्प है।

‘शोटाइम’ वेब सीरीज की कहानी

कहानी एक नामी फिल्म स्टूडियो विक्ट्री के इर्द-गिर्द बुनी गई है, जिसके मालिक विक्टर खन्ना (नसीरुद्दीन शाह) अपने जमाने के हिट रोमांटिक फिल्ममेकर रहे हैं। वे फिल्में बनाना अपना धंधा नहीं, धर्म मानते हैं। लेकिन उनकी पिछली कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलीं, तो कमान उनके बेटे रघु खन्ना (इमरान हाशमी) के हाथों में सौंपी गई है। रघु का मंत्र है कि कॉन्टेंट कैसा भी हो, बस पैसा बनना चाहिए। उसके लिए ब्लॉकबस्टर की परिभाषा है, दो घंटे फिल्म देखो, खाओ, पियो, खिसको। इसलिए, वह समीक्षकों को पैसे खिलाकर स्टार रेटिंग खरीदता है, लेकिन एक नई-नवेली पत्रकार महिका नंदी (महिमा मकवाना) उसकी फिल्म की बैंड बजा देती है।

धूसर से उजले होते, उजले से धूसर होते किरदार

करण जौहर की कंपनी धर्मा की डिजिटल शाखा धर्मैटिक एंटरटेनमेंट धीरे धीरे उस राह पर आ रही है, जहां उससे अब और सामयिक मनोरंजन सामग्री की उम्मीद की जा सकती है। ‘लव स्टोरियां’ से इसने बीते महीने ही लाखों दिल जीते हैं। उससे पहले ‘द फेम गेम’ में एक उम्रदराज हीरोइन के नजरिये से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की भीतरी हलचल दिखाने वाले करण जौहर ने इस बार कहानी का सूत्रधार एक ऐसी युवती को बनाया है जिसकी फिल्म समीक्षक की नौकरी उसकी ईमानदारी के चलते चली जाती है। शहर के सबसे बड़े स्टूडियो का मालिक उसे बुलाकर उसे उसके डीएनए का राज बताता है और इंडस्ट्री में भूचाल जाता है। खुद को इस स्टूडियो का सर्वेसर्वा समझने वाला बेटा सड़क पर आ जाता है। अपना अलग प्रोडक्शन हाउस शुरू करता है और शुरू होती है मामा और भांजी के बीच एक निर्णायक जंग। जैसी कि कहावत भी है कि प्यार और लड़ाई में सब जायज है तो मामा की हर शह पर मात देने की तैयारी में बैठी भांजी भी साम, दाम, दंड, भेद सब सीखती जाती है। ये और बात है कि इस चक्कर में उसका एक सत्यनिष्ठ इंसान वाला शुरू में दिखाया गया किरदार धीरे धीरे कमजोर होता जाता है। एक युवा पत्रकार से एक विशाल फिल्म प्रोडक्शन हाउस की मालकिन बनने के इस किरदार में महिमा मकवाना का चयन उनकी कद काठी और उनके अभिनय के लिहाज से चुनौती भरा है, लेकिन तारीफ करनी होगी महिमा की जिन्होंने महिका नंदी का ये किरदार निभाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है।

‘शोटाइम’ वेब सीरीज रिव्‍यू

यह सीरीज बॉलिवुड फिल्ममेकर्स की सिर्फ पैसे बनाने वाली सोच, स्टार्स के नखरे, फिल्मों के बनने के पीछे की जोड़-तोड़, रिव्यूज की खरीद-फरोख्त के साथ खूब चर्चा में रहे नेपोटिजम जैसे सुने-सुनाए विषयों को बिना लाग-लपेट दिखाती करती है। लेकिन अफसोस कि यह मधुर भंडारकर की फिल्मों की तरह संजीदगी से विषय के गहराई में नहीं उतरती। सीरीज बस इन विषयों को सतही ढंग से इफेक्ट के लिए इस्तेमाल करती है। ना ही ऐसी कोई नई बात कहती है।

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