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जर्मनी से बात बने तो हो जाएगा खत्म,जर्मन टे क्नॉलोजी से ही चीन बना बादशाह


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जर्मनी: देश में इस समय ऊर्जा संकट चरम पर है। लगभग सभी राज्यों में बिजली की मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर बना हुआ है। इस कारण सभी शहरों में बिजली की आपूर्ति में घंटों की कटौती करनी पड़ रही है, लेकिन इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन देशों की विदेश यात्रा पर हैं जहां आज उनकी मुलाकात जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज से होनी है। दोनों नेताओं के बीच ग्रीन एनर्जी को लेकर एक समझौता भी होना है। यदि भारत और जर्मनी के बीच ग्रीन एनर्जी पर बेहतर समझौता होता है तो इससे आने वाले दिनों में देश का ऊर्जा संकट खत्म हो सकता है।

ग्रीन एनर्जी के मामले में जर्मनी दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल है। ग्रीन एनर्जी पैदा करने की वर्तमान में उपलब्ध सभी तकनीकों के मामलों में उसकी तकनीकी बेहद उन्नत, सस्ती और प्रभावशाली है। जर्मनी अपनी कुल ऊर्जा जरूरतों का लगभग 48 प्रतिशत ग्रीन एनर्जी यानी सोलर या पवन ऊर्जा के माध्यम से प्राप्त करता है। (जबकि भारत काफी प्रयास के बाद भी अभी लगभग 10 प्रतिशत ऊर्जा ही ग्रीन एनर्जी के माध्यम से प्राप्त कर पाता है।) इससे उसे अपनी ऊर्जा जरूरतों पर न केवल अपेक्षाकृत रूप से बेहद कम खर्च करना पड़ता है, बल्कि इससे वहां का वातावरण भी पर्यावरण अनुकूल रहता है।

पूर्व ऊर्जा विशेष सचिव अजयशंकर ने अमर उजाला से कहा कि आज सोलर पैनल बनाने के मामले में चीन दुनिया के शीर्ष देशों में माना जाता है। लेकिन ध्यान देने की बात है कि चीन ने सोलर पैनल बनाने की तकनीकी जर्मनी से ही प्राप्त की थी। इसमें और अधिक सुधार करके और इसे सस्ता कर आज चीन दुनिया में सोलर पैनल का सबसे बड़ा निर्यातक देश बन गया है।

भारत भी अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को समझते हुए लगातार ग्रीन एनर्जी को विकसित करने में लगा हुआ है। वर्तमान सरकार ग्रीन एनर्जी के मामले में पूरी तरह चीन पर निर्भर नहीं रहना चाहती है। इसके पीछे केवल व्यावसायिक कारण नहीं हैं। इसके पीछे रणनीतिक कारण भी हैं।

वर्तमान में रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के दौरान हमने देखा कि रूस ने यूरोप के कुछ देशों को गैस की सप्लाई रोक दी। उसने यूक्रेन की मदद करने वाले देशों को होने वाली गैस की सप्लाई रोकने की भी धमकी दी है। इस समय भारत सोलर पैनल के लिए लगभग पूरी तरह चीन पर निर्भर है। यदि भविष्य में कभी ऐसी कोई स्थिति बनती है तो (रूस की तरह) चीन भी भारत को ब्लैकमेल कर सकता है। या ऊर्जा की कीमतें मनमानी तौर पर बढ़ा सकता है जिससे भारत को दबाव झेलना पड़ सकता है।

यही कारण है कि भारत समय रहते अपनी तैयारी पूरी करना चाहता है। भारत सेमी कंडक्टर, सोलर पैनल और अन्य महत्त्वपूर्ण जरूरतों के लिए पूरी तरह चीन पर निर्भर होने की बजाय घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना चाहता है जिससे उसे इस तरह के रणनीतिक संकट का कभी सामना न करना पड़े। सरकार इसके लिए भारतीय-विदेशी उद्योगपतियों को सोलर पैनल बनाने के उद्योग में निवेश के लिए आकर्षित कर रहा है। यदि ऐसे में भारत को चीन की तरह जर्मनी की तकनीकी मिल जाती है तो इससे भारत बेहद उन्नत किस्म के और सस्ते पैनल बना सकेगा जिससे भारत की जरूरतें पूरी हो सकेंगी।

वर्तमान में भी भारत की कुछ कंपनियां सोलर पैनल बनाने के काम में जुटी हैं। लेकिन अभी भारत के सौलर पैनल कीमतों के मामले में चीन के उत्पादों के सामने महंगे हैं। लिहाजा भारत इस मामले में ज्यादा प्रगति नहीं कर पा रहा है। लेकिन जर्मनी की तकनीकी और सस्ता श्रम भारत की यह समस्या दूर कर सकता है।
हाइड्रोजन को भविष्य का ईंधन कहा जा रहा है। जर्मनी इस मामले में बेहद तेजी से काम कर रहा है। उसकी योजना है कि आने वाले दिनों में वह अपनी ट्रेनों तक को हाइड्रोजन के माध्यम से चलाएगा। वह लगातार इस पर काम कर रहा है और उसकी तकनीकी काफी उन्नत हो चुकी है। इधर भारत भी हाइड्रोजन को वैकल्पिक ईंधन के रूप में बढ़ावा देने पर विचार कर रहा है। यदि हाइड्रोजन तकनीकी पर दोनों देशों के बीच समझौता हो जाता है तो इससे भारत की ऊर्जा जरूरतें बहुत हद तक पूरी हो सकती हैं। यही कारण है कि ऊर्जा विशेषज्ञ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जर्मनी यात्रा को लेकर बेहद उत्साहित हैं।

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