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200 Halla Ho Review : एक बार जरूर देखें, अनोखे बदले की कहानी है फिल्म 200 Halla Ho


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मुंबई – फिल्म ‘200 हल्ला हो’ आज रिलीज हुई। यह फिल्म सच्ची घटना और व्यक्ति के जीवन से प्रेरित है। निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की यह फिल्म 2004 में नागपुर (महाराष्ट्र) में हुई एक अभूतपूर्व घटना को पर्दे पर उतारती है, जिसमें वहां के एक इलाके की करीब 200 महिलाओं ने स्थानीय गुंडे-बलात्कारी-हत्यारे को भरी अदालत में मौत के घाट उतार दिया था।

यह दुनिया की दुर्लभ घटनाओं में से है। लेकिन, 200 हल्ला हो की खूबी यह है कि अपने विस्तार में सिर्फ अदालत में ‘रावण के वध’ की कहानी मात्र नहीं रहती। यह उस दलित विमर्श और उसके परिदृश्य को सामने लाने की सार्थक कोशिश करती है, जिसका अभाव अक्सर हिंदी सिनेमा में दिखाई देता है। हाल के वर्षों में मसान (2015), धड़क (2018) और आर्टिकल 15 (2019) जैसी फिल्मों में दलित कथानक दिखे, लेकिन ये क्रमशः नायक-नायिका की कहानी में बदल जाते हैं।

कहानी –
200 हल्ला हो शुरू से अंत तक एक समाज के दर्द और आक्रोश को सामने लाने की कोशिश करती है, जो बरसों-बरस खुद पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाता। पुलिस और अदालत में न्याय पाने के लिए उसका संघर्ष यहां है। न्याय के सामने जाति-धर्म का हवाला देना बेकार है लेकिन कभी-कभी यह बेहद जरूरी हो जाता है। न्यायाधीश के सामने नायिका कहती है, ‘जाति के बारे में क्यों न बोलूं सर, जब हर पल हमें हमारी औकात याद दिलाई जाती है।’ वास्तव में यह फिल्म अति-आधुनिक और प्रबुद्ध विचारों वाले समाज में दलितों-पिछड़ों पर होने वाले जघन्य अपराधों पर पसरी दिखती चुप्पी से कई कड़े सवाल करती है। फिल्म के संवाद सोचने पर मजबूर करते हैं। जैसे- संविधान में लिखे शब्दों को सिर्फ याद रखना जरूरी नहीं। उनका इस्तेमाल करना ज्यादा जरूरी है।

जी5 पर रिलीज हुई 200 हल्ला हो भी ऐसी ही लड़ाई सामने लाती है। नागपुर के गरीब-पिछड़ों की बस्ती, राही नगर की 200 महिलाएं एक सुबह स्थानीय कोर्ट में लोकल गुंडे बल्ली चौधरी (साहिल खट्टर) का जिस्म चाकू, कैंची, स्क्रू ड्राइवर से छेद देती हैं। उसका ‘पौरुष प्रतीक’ भंग कर देती हैं। पुलिस उसकी जान नहीं बचा पाती। मामला अगड़ी-पिछड़ी जाति का बन जाता है। चुनाव सिर पर हैं और पुलिस को सब जल्दी से सुलटाना है। वह तत्काल राही नगर की पांच महिलाओं को गिरफ्तार कर अदालत में आजीवन कारावास की सजा दिला देती है। ऊपर-ऊपर मामला जितना सीधा दिखता है, उतना होता नहीं।

रिटायर्ड जज विट्ठल डांगले (अमोल पालेकर) महिला आयोग द्वारा बनाई एक कमेटी के अध्यक्ष के रूप में जांच शुरू करते हैं। यही फिल्म का वह पक्ष है, जो दलित विमर्श के पन्नों को धीरे-धीरे खोलता है। डांगले खुद दलित हैं मगर उन्होंने अपनी सामाजिक हैसियत उठने के बाद मुड़कर नहीं देखा। वह दोषी करार दी गई महिलाओं के लिए लड़ने वाली दलित युवती आशा सुर्वे (रिंकू राजगुरु) की बातों से शुरुआत में सहमत नहीं होते मगर धीरे-धीरे स्थितियां बदलती हैं और उन्हें लगता है कि कानून की आंखों पर बंधी पट्टी को अब खोल देना चाहिए क्योंकि आज बंद आंखों से नहीं बल्कि निगाहें चौकन्नी रख कर न्याय करना जरूरी हो गया है।

200 हल्ला हो किसी पात्र विशेष की कहानी नहीं है लेकिन अमोल पालेकर और रिंकू राजगुरू की भूमिकाएं सशक्त हैं। वे दलितों की दो विपरीत छोर पर खड़ी पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 200 हल्ला हो की कास्टिंग अच्छी है और बरुण सोबती, साहिल खट्टर, उपेंद्र लिमये, इंद्रनील सेनगुप्ता तथा फ्लोरा सैनी अपने किरदारों में खरे उतरे हैं। हल्ले यानी हमले की बात करते हुए भी फिल्म शोर-शराबा किए बिना अपनी बात रखती है।

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