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इन मंदिरों में आज भी पूजा जाता है दुर्योधन को


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नई दिल्ली – महाभारत की कथा के खलनायक दुर्योधन की देश के कई मंदिरो में आज भी पूजा जाता हैं। उसके पीछे बड़ी कहानी छुपी हुयी हैं।

गांधारी का बेटा राजा दुर्योधन एक बार हिमालय के गढ़वाल में घूमते-घूमते जौनसार-बावर अंचल के ओसला गांव पहुंचा। यहां के प्राकृतिक सौंदर्य ने उसे मुग्ध कर दिया और कुछ दिन वह इसी गांव में रुक गया। दुर्योधन को जब इस इलाके के संरक्षक देवता महासू की महिमा का पता चला, तो उसने उन्हें खुश करने के लिए उनकी पूजा की। महासू खुश हुए और उसे घाटी के इस इलाके पर राज करने का आशीर्वाद दे दिया। इसके बाद इस गांव के लिए सबकुछ दुर्योधन ही हो गया। वह यहां का क्षेत्रपाल यानी रक्षक बन गया। चोर-डकैतों और तरह-तरह की आफत से दुर्योधन और उसका प्रिय मित्र कर्ण गांव वालों की रक्षा करते। उनके दबदबे और लोकप्रियता में कोई कमी नहीं थी। गांव के लोग उन्हें देवता की तरह मानते। वे दुर्योधन के प्रति इतने आभारी थे कि उन्होंने उसके लिए एक मंदिर भी बनाया।

आज भी ओसला गांव के लोग इस मंदिर में दुर्योधन की मूर्ति की पूजा करते हैं। यहां के लोग इसे देव महाराज का मंदिर कहते हैं। पूस महीने की पांचवीं तारीख से दुर्योधन की मूर्ति एक रंगारंग शोभायात्रा के जरिये मोरी तालुका के फितारी गांव पहुंचती है। इस यात्रा की अगुवाई करते हैं जौनसार-बावर क्षेत्र के कई समुदायों के मुखिया और ओसला मंदिर के मुख्य पुजारी। वहां से कोटगांव, दतमिर होते हुए 20 दिन बाद फिर दुर्योधन की मूर्ति ओसला मंदिर में लौट आती है।

किवदंती है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध में दुर्योधन के मारे जाने के बाद इस गांव के लोग इतने दुखी हुए कि कई दिनों तक रोते रहे। उनके आंसुओं से तमसा नदी फूट पड़ी, जिसे आज टोन्स के नाम से जाना जाता है। इसके जल से कोई पवित्र काम नहीं होता, क्योंकि यह दुख की नदी है। मंदिर के बगल में लोहे का एक कोठार है, जिसे गांव वाले दुर्योधन का कोठार मानते हैं। कई लोगों का यहां तक मानना है कि देहरादून नाम भी दुर्योधन से ही आया है।

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